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सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र महरौनी में अव्यवस्थाओं का बोलबाला, पैसों कि खातिर जान से खेलती स्टाफ नर्स।परिवारजनों ने स्टाफ नर्स पर लगाया पैसे मांगने का आरोप।
ललितपुर ब्यूरो /(सुरेंद्र कुमार) जिला ललितपुर से करीब 35 किलो मीटर कि दूरी पर महरौनी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र महरौनी में मरीजों के साथ पैसों के लिए उनकी जान से भी खेलना कोई बड़ी बात नहीं हैं, यहां का स्टाफ चंद पैसों के लिए आमजन गरीबों कि जान से आंख मिचौली करने से भी परहेज़ नहीं करते। वहीं हम आपको बता दें कि महरौनी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र महरौनी में आए दिन गरीबों से पैसे मांगने के आरोप लगने एक आम बात है। करीब एक माह पहले जिस स्टाफ नर्स अनीता सेन पर पैसा मांगने के आरोप लगाए गए हैं। उसी स्टाफ नर्स अनीता सेन उस समय के चिकित्सा अधीक्षक पर शोषण करने आरोप लगाए थे और विषाक्त पदार्थ का सेवन कर लिया था, जिसके बाद सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र महरौनी में एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते हुए कहा था कि चिकित्सा अधीक्षक सिद्धार्थ जैन आए दिन हम लोगों का शोषण कर रहे हैं जिस कारण स्टाफ नर्स ने विषाक्त पदार्थ का सेवन किया है। सिद्धार्थ जैन के अनुसार – डॉ सिद्धार्थ जैन ने इस मामले में कहा था कि उक्त स्टाफ नर्स प्रसूता वार्ड में गरीबों से पैसा लूटने का कार्य करती है जिस कारण स्टाफ नर्स अनीता कि जगह बदल दी गई थी जिस कारण यह हाइवोल्टेज ड्रामा किया जा रहा है। इन लोगों का केवल एक ही मतलब है कि यह आमजन और गरीबों को किसी भी प्रकार से अपनी लूट का साधन बनाती रहें और कोई इनके विरोध में आवाज ना उठाए इसलिए यह रणनीति अपना कर हमें यह से हटाने के लिए यह खेल रचा गया था। प्रसूता कि सास वती के अनुसार– महरौनी निवासी वती परिहार ने आरोप लगाते हुए बताया कि जब वह अपनी बहु को सामुदायिक स्वास्थ्य महरौनी केंद्र लेकर पहुंची तब स्टाफ नर्स ने उन्हें अंदर तो लिया लेकिन उसके ऐवज में पैसे मांगने कि बात कहने लगी, जिस पर प्रसूता कि सास ने कहा कि मेम हमारे पास पैसे नहीं हैं और हम ग़रीब आदमी हैं तब स्टाफ नर्स अनीता सेन और साथ के एनी स्टाफ ने कहा कि यदि आप पैसे देंगे तो यहां पर प्रसूता को भर्ती किया जायेगा और यदि नहीं पैसे दोगी तो हम उनको रिफर कर देंगे, जिसके बाद प्रसूता कि मां ने अपने लड़के को पैसे लाने कि बोला और स्टाफ नर्स को पैसे दिए, जिसके बाद प्रसूता कि डिलेवरी कराई गई, और प्रसूता ने एक बच्चे को जन्म दिया। बच्चे के जन्म देने के बाद निछार के रुप में भी मांगे पैसे – वहीं प्रसूता कि सास ने बताया कि जब बच्चे ने जन्म लिया तब हम अपनी बहु को ले जाकर अंदर पलंग पर लिटाने ले गए और उसके बाद जब बच्चे को उठाने के लिए पहुंचे तब कर्मचारियों ने निछार के रुप में भी पैसे मांगने लगे और उस समय समस्त स्टाफ ने करीब 5 हजार के लगभग रुपया लिए। बच्चे के पिता के अनुसार – बच्चे के पिता ने आरोप लगाया कि बच्चे के होने समय करीब चार से पांच हजार रूपए लिए गए जिस कारण बच्चे कि कोई देख रेख नहीं कि गई, जबकि मम्मी ने कहा भी है की बच्चा मुंह नहीं बोल रहा तब नर्स ने थप्पड़ मारे तब बच्चा रोने लगा और उसके बाद फिर पैसों कि मांग करने लगे जिसमें बाद में भी कहा गया कि बच्चा मुंह नहीं बोल रहा है तब अनीता सेन ने कहा कि बच्चा लुंजट गया है जिससे नहीं बोल रहा वह बाद में बोलने लगेगा और इसी बीच बच्चे कि जान चली गई केवल पैसों के कारण। नर्स पर आरोप प्रत्यारोप का दौर हमेशा चलता रहा है मगर नर्स पर आज तक कोई कार्यवाही नहीं कि गई आखिर क्यों? जबकि सिद्धार्थ जैन ने भी यही कहा था कि उक्त स्टाफ नर्स मरीजों से इलाज के नाम पर पैसा लेने का कार्य करती है जिस कारण उसकी ड्यूटी अन्य जगह लगाई गई थी जिस कारण यह हाइ बोलटेज ड्रामा किया गया है जिससे यह अपने मनमर्जी के अनुसार कार्य करती रहे।

भीमा कोरेगांव का युद्ध : जब 500 महारों ने 28,000 पेशवा सैनिकों से लिया जातीय अपमान का बदला !
युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार पेशवा की सेना को देख कर ही दुश्मन घबरा जाए। उस दिन अंग्रेज सेना के अफसर भी घबरा गये थे... कुछ सौ सैनिकों के सामने हजारों की फौज देखकर उन्हें यकीन हो चला था कि उनकी हार निश्चित है। डॉ आंबेडकर ने भीमा कोरेगांव स्मारक की यात्रा की थी। (Art by Patron of Ambedkar) तारीख 1 जनवरी 1818, जगह भीमा कोरेगांव, पुणे। एक तरफ थी पेशवा बाजी राव II की विशाल सेना और दूसरी तरफ थे ब्रिटिश आर्मी के मुट्ठी भर जवान। पेशवा की सेना में 28000 से ज्यादा सैनिक थे। पैदल, घुड़सवार और तीर अंदाज सैनिकों की टुकड़ियां थी। युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार पेशवा की सेना को देख कर ही दुश्मन घबरा जाए। उस दिन अंग्रेज सेना के अफसर भी घबरा गये थे… कुछ सौ सैनिकों के सामने हजारों की फौज देखकर उन्हें यकीन हो चला था कि उनकी हार निश्चित है। 500 महारों ने 28,000 सैनिकों को धूल चटा दी अंग्रेज सेना में कुल 834 सैनिक थे, इनमें से 500 सैनिक महार जाति के थे। इस महार रेजिमेंट के वीरों ने पेशवा की सेना से टक्कर का ऐलान कर दिया। उस दिन भीमा नदी के तट उस ऐतिहासिक लड़ाई के गवाह बने जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। भीमा कोरेगांव में जबरदस्त युद्ध हुआ लेकिन महार सैनिकों के सामने पेशवा की सेना ज्यादा देर टिक ना सकी। महार किसी भूखे शेर की तरह पेशवा की सेना पर टूट पड़े… एक-एक महार सैनिक सौ-सौ पेशवा सैनिकों पर भारी पड़ रहा था। इन मुट्ठी भर सैनिकों ने पेशवा की सेना के छक्के छुड़ा दिये। दिनभर लड़ाई चली और पेशवा की सेना का मनोबल टूट गया। रात होते-होते पेशवा ने घुटने टेक दिए। 1 जनवरी 1818 का वो दिन इतिहास की सबसे साहसिक लड़ाई के नाम से जाना जाता है। एक ऐसी लड़ाई जिसमें मुट्ठी भर महार सैनिकों ने हजारों की सेना को धूल चटा दी थी। उस दिन के बाद से महाराष्ट्र के पुणे जिले के भीमा कोरेगांव गांव को दुनिया के नक्शे पर खास पहचान मिली। अंग्रेजों ने भीमा कोरेगांव में विक्टरी पिलर बनवाया There is a “victory pillar” in Koregaon commemorating the battle. (Photo – Wikipedia) अंग्रेजों ने महार सैनिकों के अदम्य साहस को सम्मान देने के लिए भीमा कोरेगांव में एक युद्ध स्मारक बनवाया। इस विक्टरी पिलर पर महार सैनिकों के नाम लिखे गए। ये लड़ाई इतिहास में अमर हो गई। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि महार सैनिकों ने पेशवा के खिलाफ लड़ने के लिए इतनी ताकत कहां से आई ? ऐसा क्या हुआ था जो अपनी जान की परवाह किये बिना महार रेजिमेंट टूट पड़ी थी। इसका जवाब हम आपको देते हैं। पेशवा राज में जातिवाद चरम पर था 19वीं शताब्दी में पेशवा राज भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास का सबसे क्रूरतम शासनकाल था। मराठों के साथ छल करके ब्राह्मण पेशवा जब सत्ता की कुर्सी पर आए तो उन्होंने शूद्रों को नरक जैसी यातनाएं देना शुरू कर दिया। ब्रह्माण पेशवाओं ने मनुस्मृति जैसी घटिया किताब को सख्ती से लागू किया। पेशवा राज में शूद्रों को थूकने के लिए गले में हांडी टांगना ज़रूरी था। साथ ही शूद्रों को कमर पर झाड़ू बांधना ज़रूरी था जिससे उनके पैरों के निशान मिटते रहें। शूद्र केवल दोपहर के समय ही घर से बाहर निकल सकते थे क्योंकि उस समय शरीर की परछाई सबसे छोटी होती है। परछाई कहीं ब्राह्मणों के शरीर पर ना पड़ जाए इसलिये उनके लिए यह समय निर्धारित किया गया था। शूद्रों को पैरों में घुंघरू या घंटी बांधनी ज़रूरी थी ताकि उसकी आवाज़ सुनकर ब्राह्मण दूर से ही अलर्ट हो जाएं और अपवित्र होने से बच जाएं। अंग्रेजों ने महार रेजिमेंट बनाई ऐसे समय में जब पेशवाओं ने दलितों पर अत्यंत अमानवीय अत्याचार किये, उनका हर तरह से शोषण किया, तब उन्हें ब्रिटिश सेना में शामिल होने का मौका मिला। अंग्रेज़ चालाक थे…. क्योंकि ब्रिटिश सेना में शामिल सवर्ण सैनिक, शूद्रों से कोई संबंध नहीं रखते थे, इसलिये अलग से महार रेजिमेंट बनाई गई। महारों के दिल में पेशवा साम्राज्य के अत्याचार के खिलाफ ज़बरदस्त गुस्सा था, इसलिये जब 1 जनवरी 1818 को भीमा कोरेगांव में पेशवा सेना के साथ उनका सामना हुआ तो वो उन पर शेरों की तरह टूट पड़े। सिर्फ 500 महार सैनिकों ने बाजीराव द्वितीय के 28 हज़ार सैनिकों को धूल चटा दी। महारों ने पेशवा से लिया अपमान का बदला महारों में अंग्रेजी सिपाही होने से ज़्यादा जातीय भेदभाव और अपमान का बदला लेने की ललक थी। इस तरह इस ऐतिहासिक लड़ाई में महारों ने अपने अपमान का बदला लिया। 1 जनवरी 1927 को डॉ अंबेडकर भीमा कोरेगांव गये थे। बाबा साहब की इस पहल से देश के लाखों-करोड़ों दलितों को प्रेरणा मिली। जो दलित पहले खुद को कमजोर और हीन समझते थे, अब उन्हें ये पता चला कि इतिहास में उनके लोगों ने अदम्य साहस दिखाया है। ये एक तरह से गर्व करने वाली बात थी। महारों के गुस्से की जीत थी ‘भीमा कोरेगांव’ की लड़ाई धीरे-धीरे दलित हर साल एक जनवरी को भीमा कोरेगांव में जुटने लगे। आज हर साल लाखों लोग भीमा कोरेगांव में आते हैं। कुछ ब्रह्माणवादी इस जश्न को अंग्रेजों की जीत का जश्न बताकर दुष्प्रचार करते हैं। वो पूछते हैं कि आज़ाद भारत में अंग्रेज़ों की जीत का जश्न क्यों मनाया जा रहा ? इस सवाल के जरिये मनुवादी मीडिया और ब्राह्मणवादी मानसिकता के लोग भीमा कोरेगांव की ऐतिहासिक लड़ाई को अंग्रेज़ों की लड़ाई साबित करने की साज़िश कर रहे हैं। क्योंकि ‘भीमा कोरेगांव’ अंग्रेज़ों की नहीं, बल्कि महारों के गुस्से की जीत थी। वीडियो देखने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
